Desi Kahani – कहानी इन हिंदी [ Part III ]
इस आर्टिकल में हम आपको 5 कहानी इन हिंदी या कहानी लिखी हुई या फिर देसी कहानी बताएंगे। हमारे द्वारा बताई हुई आज की Desi Kahani बच्चो के और बड़ो के दोनो के लिए है, कहानी लिखी हुई चलिए देखते है क्या क्या है अच्छी अच्छी कहानियां हिंदी मे
आज की छोटे बच्चो की कहानी के अलावा हम आपको 5 अच्छी अच्छी देसी कहानी की यूट्यूब वीडियो की लिंक देंगे । आप Desi Kahani का लुप्त उठा सकते है। चलिए अब हम 5 देसी कहानी लिखी हुई पढ़ना शुरू करते है ।
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1. कल की तस्वीर ख़ुद बना लीजिए! :
एक बर्ग लोगों का ऐसा है, जो नए साल को महज कैलेंडर बदलने का अवसर मानता है और ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं, जो नए साल का जश्न नएपन और ज़बर्दस्त उत्साह के साथ मनाते हैं। मुद्दा दिसम्बर के अंत या जनवरी के आएंभ का नहीं है, मुद्दा है जीवन में नए के स्वागत का।
इसके लिए किसी तारीख की ज़रूरत नहीं है। कल्पना और इरादा काफ़ी है। हम अपने लिए कैसा भविष्य चुनते हैं, उसमें आज से बेहतर कया हो सकता है, इसके लिए पहले हर इच्छा शकि्ति के साथ कल्पना करना और फिर अदम्य चाह व मेहनत के साथ उसे हक़ीक़त में तब्दील करना, इतना ही करना है।
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कल्पना करने के लिए अपने लक्ष्य को तय करना; फिर उसे छोटे-छोटे चरणों में बांटकर पूरा करते जानां, जैसे उपाय हमें मालूम हैं। एक और नए उपाय का जिक्र यहां कर रहे हैं, जिसका पालन करना सरल भी है और भरपूर चाह के साथ किया, तो पालन करना मुमकिन भी है। इसके तीन चरण हैं।
पहला, एक शांत स्थान पर बैठ जाएं। आंखें बंद कर लें और कल्पना करें कि आपके सामने एक आईना है, जिसके कैनारे नीले हैं। यह आपकी आज की स्थिति है यानी वर्तमान है। दाहिनी तरफ़ का आईना लाल फ्रेम का है, जो गुजर ज़रा कल है और बाएं हाथ की तरफ़ का फ्रेम सफेद है, जो भविष्य का द्योतक है।
लाल फ्रेम महज़ आपकी आज़माइश के लिए है कि आप इसको किस हद तक नजरअंदाज करं सकते हैं। इस तरफ़ देखा, तो भविष्य ही नहीं वर्तमान भी मुश्किल में होगा। अब दूसरे चरण की बारी आती है। नीले फ्रेम में अपनी आज की स्थिति की तस्वीर बनाने की कल्पना कीजिए।
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देखिए कि उसमें क्या-क्या शामिल किया जा सकता है। अब कल्पना कीजिए कि आपके हाथ में एक साफ़ करने वाला कपड़ा है। तस्वीर के उन हिस्सों को मिटाने की कल्पना कीजिए, जो आपको बदलने हैं या जिनमें सुधार करना है।
इसके बाद नीले फ्रेम से सफ़ेद फ्रेम की और देखिए। तीसरे चरण में, यहां आज के अच्छे हिस्सी को रख दीजिए, साथ ही उन पक्षों को भी उसमें शामिल कीजिए, जिनके सच होने की आप भविष्य में 'अपने आप' से उम्मीद करते हैं।
यह ' अपने आप' अहम है। जो करना है, आपको ख़ुद करना है। कल्पना यथार्थपरक हो, मुमकिन होने के क़ाबिल हो, तो आसानी से उसके हिस्सों को याद रखा जा सकता है। जब आपको लगे कि तस्वीर पूरी हो गई है, तो उस फ्रेम पर कांच चढ़ा दीजिए।
एक बार पूरी तस्वीर को गौर से देखिए, ताकि याद रह सके। अब धीरे-धीरे आंखें खोल लीजिए। जो तस्वीर आपने बनाई है, उसे सच करने की कोशिश उस्री दम से शुरू कर दीजिए। यही पल नया साल है। आप सबको नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं।...
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2. जब गाड़ी बात करने लगी :
हल्की-हल्की सी ठंड की हो छल चुकी थी और महीने का कल होने के कारण स्कूल की छुट्टी थी। रिंकी, टिंकू, मिंकू, शान, निधि बहुत देर से सुबह की धूप में खेल रहे थै। छुपन-छुपाई भी खेल लिया, अब सारी भागा-दौड़ी करके गली में बैठ गए और बातें करने लगे।
तभी साइकिल चलाता हुआ मोनू भी वहां आ गया मोनू बाकी सब बच्चों से थोड़ा बड़ा था, इसलिए सब उसकी बात मानते थे। आते ही मोनू ने साइकिल साइड स्टैंड पर खड़ी की और सामने वाले घर में रहने वाले अंकल की नई गाड़ी को आगे-पीछे से ढेखने लगा।
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बाकी बच्चे भी कौतूहलवश उसके साथ आ खड़े हुए और शीशे से देखने लगे। गाड़ी बहुत बड़ी थी और बच्चों को उसकी सीटें, स्टेयरिंग वर्गैरह देखने में बड़ा मजा आ रहा था। मोनू को एहसास था कि वो उन बच्चों से बड़ी कक्षा में है, इसलिए वह उनको बताता जा रहा था कि ये कौन-सा मॉडल है, क्योंकि उसके चाचा जी के पास भी वैसी ही गाड़ी थी।
गाड़ी के बोनट की तरफ इशारा करके उसने बताया कि इसके आगे कैमरा भी लगा हुआ है..., तो भी बच्चों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। तब मोनू ने उन्हें एक ओर इशारा करते हुए कहा कि देखो ये लगा हुआ है कैमरा।
बच्चों को यह सब करते हुए वहीं पड़ोस में रहने वाली रुचि देख रही थी। बोनट दिखाते हुए मोनू सबसे बोला- पता है यह गाड़ी बोलती भी है? यह सुनते ही बच्चों की हंसी छूट गई और उन्होंने कहा कि मोनू मैया हमें बेवकूफ मत बनाओ, कहीं ऐसा भी होता है? लेकिन मोनू ने कहा- मैं सच कह रहा हूं।
जब इसमें चाबी लगाते हैं तो ये बातें करती है। बच्चों को बिलकुल विश्वास नहीं हो रहा था। अभी बच्चे इसमें उलझे हुए ही थे कि अचानक आवाज आई- “हां मोनू सही कह रहा है, मैं बात करती हूं...” जैसे ही बच्चों ने यह सुना, घबराकर कार से दूर छिटक गए।
गाड़ी से फिर आवाज आई "डरो मत, मैं नुकसान नहीं पहुंचाती, मैं तो सिर्फ वैसे ही बात करती हूं जैसे अलेक्सा तुमसे बात करती है।"यह सुनकर मोनू और बाकी बच्चों का डर खत्म हुआ और वे गाड़ी के नजदीक आ गए। अब तो बच्चों को मजा आने लगा और वे गाड़ी से बातें करने लगे।
तभी अचानक रिंकी ने कहा कि लेकिन यह आवाज तो कुछ जानी-पहचानी सी लग रही है। फिर सभी जोर से चिल्लाए- “अरे यह तो रुचि दीदी की आवाज है ! !" जैसे ही रिंकी ने यह कहा, गाड़ी के पीछे छुपी रुचि दीदी सामने आ गईं और इस बात पर बच्चे और रुचि दीदी बहुत देर तक हंसते रहे।
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3. चोर [ छोटे बच्चो की कहानी ] :
तीन दिनों से लगभग खा था। कई तह दिनों से कोई दांव नी लगा था की का बैठा निश्चय करके ही उतरेगा मैच जान साफ़ ट्रेन के जिस डिब्बे में बैठा, उसके सामने एक कर परिवार था! वह गंभीर मुद्रा बनाकर और खोलकर सामने बाली सीट बराक न दिखता बैठ गया और उस परिवार की टोह लेने लगा।
परिवार किसी शादी से लौटा था, उनकी बातों से जानकर उसकी धड़कनें तेज़ हो गईं! 'आज तो मोटा हाथ लगेगा !' परिवार की गृहिणी सुघड़ थी। क़रीने से सारे सामान को इस तरह जमाया था कि किस का हाथ तक ना पहुंच सके। 'कोई बात नहीं, इनके सोने का इंतज़ार करतीं हूँ,' उसने सोचा।
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हालांकि, आज उससे सब्र नहीं हो रहा था। पढ़ते-पढ़ते उसने आंखें बंद कर लीं और सोने का अभिनय करते-करते कब उसे झपकी लग गई, पता ही नहीं चला। 'मैया जी! भैया जी!' की आवाज़ पर था। वह उठा, तों पाया कि बह स्त्री उसे उठा रही थी। वह अकबकाकर उठ बैठा।
देखा कि वह उसके सामने पेपर प्लेंट लिए खड़ी थी, जिसमें पूड़ी, आलू की सब्जी, आम का अचार और को पीस भी था कि ही उसकी भूख जाग उठी। "चलो भैया ! आप भी खाना खा लो।' वह स्त्री बोली। ' अरे! नहीं-नहीं बहन जी! आप परेशान 'अरे नहीं भैया! इसमें परेशानी की क्या बात है।
हम लोग तो शादी से लौट रहे हैं। हमारे पास ख़ूब खाना और मिठाई है। उसकी चिंता न करें। आप साथ यात्रा कर रहे हैं, ऐसा कैसे हो सकता है कि आप सामने भूखे बैठे रहो और हम खाते रहें !' 'लीजिए-लीजिए !' कहकर उसने बड़े प्रेम से प्लेट उसके हाथ में रख दी।
अब उससे रहा नहीं गया और वो जल्दी - जल्दी खाना खाने लगा। अभी आखिरी पूड़ी ख़त्म भी नहीं हुई थी कि उस स्त्री ने वापस उसकी प्लेट में उसके ना-ना करते भी चार- छह पृड़ियां, ढेर सारी सब्जी और दो मिठाइयां रख दीं। शायद उसके खाने के अंदाज़ को देखकर उसकी भूख का अंदाज़ा हो गया था।
एक क्षण को उसके मस्तिष्क में मां का चेहरा कौंध गया। खा-पीकर उसका पेट भर गया। उसने सुकून की सांस ली। बड़े दिन बाद स्नेह-प्रेम से इतना स्वादिष्ट खाना मिला था। अब उसने ध्यान से उस परिवार को देखा। पति और दो बच्चों के साथ वो कितनी संतुष्ट थी। उन्हें उसकी ओर से होने वाले संकट का ज्षरा-सा अहसास भी न था। सोचते ही उसका दिल कांप उठा। अगले स्टेशन पर गाड़ी धीमी होते ही वह उतर गया।
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4. कंचे [ नई कहानी ] :
कल्लू ऐ कल्लू, दिनभर कंचे खेलते रहता है, घर के काम में लग जाती। कल्लू 'आ रहा हुं फिर मोहल्ले के बच्चों के साथ केंचे खेलने में मगन हो जाता था। अम्मा काम से फुरसत होकर छड़ी उठाए कल्ल के पीछे भागती, तर जाकर वह दौड़ता हुआ सीधे घर में घुसता।
बाक़ी बच्चे भी 'डरकर भाग जाते कि कल्लू के हिस्से का प्रसाद हमें न मिल जाए। यूं कल्लू पढ़ाई में ज्ह्त तेज़ था। उसे दो कार्म बहुत अच्छे लगते थे। एक ख़ेलना और दूसरा मन लगाकर पढ़ाई करना। उसकी मां प्यार से कल्लू बुलाती थी जबकि उसके रंग से इसका कोई ताल्लुक्र नहीं था।
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अलबत्ता उसके पिता का रंग ज़रा दबता हुआ था ।शरबती बाई आठ क्लास पास कर चुकी थी। तब ही पास के गांव में फकीरचंद फुल्की वाले से उसकी शादी हो गई थी। जब शरबती बाई को गुस्सा आता तो कल्लू के पापा का नाम बिगाड़कर “फटीचरचंद फुल्की वाले की औलाद' कहकर कल्लू को बुलाया करती थी।
फकीरचंद को शहर में आए १0 साल हो गए थे। वे चौराहे पर चाट का ठेला लगाते थे। शरबती बाई पास की कॉलोनी में बर्तन, झाड़-पॉंछे का काम किया करती थी; इसलिए सुबह-शाम व्यस्त रहती थी। दोपहर में पाँच-छह घंटे फ्री रहती।
चार बजे कल्लू के पापा चाट का ठेला लेकर चौराहे पर जाते तो रात 0 बजे -लौटकर बापस आते थे। कल्लू उनकी इकलौती औलाद थी। दोनों पति-पत्नी. मिलकर गृहस्थी की गाड़ी खींच रहे थे। हफ़्ते में एक दिन: छुट्टी रखते थे।
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उस दिन चाट का ठेला नहीं लगता था। वह शनिवार का दिन होता था. एक दिन रोज़ की भांति कल्लू की अम्मा कल्लू को न आवाज़ लगा रही थी कि 'किराने की दुकान से सामान ले आ।' कल्लू भी 'अभी थोड़ी देर से जाता हूं' कहकरें खेल में लग जाता था। फिर छड़ी लेकर निकली।
बोली, 'तेरे पापा को चाट का ठेला लगाना है। जाकर किराना लैं ।' कल्लू दूर से बोल पड़ा, ' अम्मा, आज तो शनिवारें है, बाबा की छुट्टी है।' कुछ सोचकर शरबती बोली, ' अरे हां, आज तो शनिवार है।' बाबा कहां गए?' कल्लू ने बताया, ' वाली मेँ कंचे खेल रहे हैं।'
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शरबती हैरान होकर बोली, “क्या बोला, कंचे? तेरे बाबा ?' ! 'हां अम्मा, बाबा भी कंचे खेल रहे हैं। चलो आओ दिखाता हूं।' शरबती ने कल्लू के साथ पड़ोस वाली गली मे ही देखा और हंसते-हंसते वापस घर आ गई। शाम को खाना खाते समय उसने फकीरचंद से पूछा, “ये क्या बच्चों जैसा शौक़ पाल लिया।
मैंने देखा आप भी कंचे खेल रहे थे। 'हां कल्लू की अम्मा, बड़ा मज़ा आता है। कंचे पर निशाना लगाते समय सारी दुनियादारी भूल जाते हैं। बचपना याद आ जाता है। हफ़्तेभर का घंटे में ग़ायब हो जाता है।' 'तुम भी शहर आकर पगला गयो हो !” कहकर शबरती हंसने लगी। फकीरचंद बोला, “तुम खेलकर देखो।
मज़ा आता है। लेकिन तुम्हें तो टीवी वाले बुलाकर ले जाते हैं कि आओ हमारे सीरियल देखो। और दिनभर खटिया तोड़ती रहो शहर वालों को मोटापे की बीमारी टीवी वाले ही दे रहे हैं और आंखों की रोशनी भी फ्री में छीन रहे हैं।' द बात आई-गई हो गई।
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शरबती एक दिन घर के बाहर बैठकर गेहूं बीन रही थी और साथ-साथ कल्प दोस्तों के साथ कंचे खेलते हुए देख रही थी। तभी पड़ोस में रहने वाली कौशल्या, रागिनी, चमेली जो शरबती की ही तरह बंगलों में खाना बनाने, साफ़-सफ़ाई आदि करने जाती थीं, शरबती को देखकर कहने लगीं, 'लाओ शरबती, हम भी गेहूं बिनवा दें।'
ये सभी एक-दूसरे के कामों में मदद कर देती थीं। पापड़-बड़ी या कोई भी काम हो सब हिल-मिल् कर लिया करतीं। और दुख-सुख में साथ खड़े थीं। शरबती ने गेहूं बीनना छोड़कर सिर उठाया,” सभी एक साथ चौंककर बोलीं, 'कंचे शरबती ने कहा, 'हां-हां, कंचे।' रागिनी कहने लगी, भगा देंगे हमें।' सबने हां में हां मिलाई। 'हमारे पति बोले का पगला गई हो कि दो-दो बच्चों की अम्मा होके मजाक सूझ रहा है।'
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“वो सब छोड़ो। हमें भी आनंद उठाने का हक़ है अच्छा, ये बताओ किस-किस को कंचे खेलना आता है? सबने एक साथ हामी भर दी। 'मतलब शादी से पहले खेला करती थीं, तो बस, कल सब अपने-अपने काम से फुरसत होकर आ जाना और एक बात बताऊं, हमारे पतिदेव फटीचर जी फुल्की वाले और तुम सभी के परमेश्वर भी पिछले हफ़्ते दूसरी गली में कंचे खेल रहे थे।
मैंने ख़ुद अपनी आंखों से देखा है।' यह सुन सब एक-दूसरे की तरफ़ देखते हए हंसने लगीं। दूसरे दिन सभी इकट्ठा हो गईं। अपने-अपने बच्चों से. थोड़े कंचे लेकर आई थीं। बारह बजे से खेलते-खेलते शाम. के चार बज गए। फिर भी मन नहीं भर रहा था।
शाम के काम पर जाना था, सो रागिनी बोली, 'कल अपन सितोलिया खेलेंगे। मुझे अच्छा लगता है।' सबने एक स्वर में कहा, ठीक है, फिर अगले दिन गिल्ली-डंडा खेलेंगे! 'हां-हां, बड़ा मज़ा आएगा।' फिर तो सिलसिला बन गया।
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अब तो रोज़ के काम भी हो रहे थे, और थकान भी नहीं थी। अपने-अपने घर-बाहर के कामों से फ़ुरसत पाकर बैठ जाने वाली महिलाएं नित नए खेल खेलती ताज्ञादम हो रही थीं। कंचों-सी चमक उनकी आंखों में दिखाई देती थी।
छोटे बच्चो के लिए कहानी – Desi Kahani , कहनी इन हिंदी
5. स्मार्ट वॉच [ कहानी इन हिंदी ] :
स्कूल बस से उतरते ही शाभवी ने जैसे ही नि मम्मी को देखा तो चहककर बोली - " अरे! मेम्मी आप? नानी नहीं आईं "मां ने मुस्कुराते हुए कहा, का "आज मैंने कॉलेज से छुट्टी ली कि. तो सोचा, में ही आपो लेन आ जाऊं” अचानक मम्मी को आता हुए देख बोली, "मम्मी, मम्मी आपको मुझे स्मार्ट वॉच दिलानी होगी।"
मम्मी ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- “हां, बेटा थोड़ी बड़ी तो हो जाओ, फिर दिला देंगे?" पर शांभवी तो जैसे स्कूल से मन बनाकर ही आई थी, बोली- मम्मी, मैंने आज अपनी फ्रेंड के पास स्मार्ट वॉच देखी है और मुझे भी वैसी ही वॉच चाहिए।
अब मैं बड़ी हो रही हूं, मुझे स्कूल में समय पता करने में दिक्कत होती है। वैसे नानी भी मुझे स्मार्ट वॉच दिला सकती हैं, पर आज आप आ गए तो आप ही दिला दीजिए..." मम्मी समझ गईं कि ये बातों से नहीं मानने वाली।
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मम्मी ने टालने वाले अंदाज में कहा-''अभी नहीं बाद में”' और पूछने लगीं, "अच्छा ये बताओ आज स्कूल में क्या-क्या किया?" शांभवी रास्तेभर मम्मी को स्कूल की गतिविधियां बताते हुए घर आ गई। मां बोलीं - “हाथ-मुंह धो लो, मैं खाना लगाती हूं... ।"'
जी मम्मी, और आप और नानी ! ! हर दिन तो नानी मेरे ही साथ खाना खाती हैं।" "हां, बेटा, मैं आपका ही इंतजार कर रही हूं, अब जल्दी आ जाओ, हम सब साध भोजन करेंगे।” नानी बोलीं खाना पूरा होता इससे पहले ही शॉभवी ने फिर स्मार्ट वॉच की रट लगानी शुरू कर दी।
"मम्मी, स्मार्ट वॉच !" मां ने नानी की ओर देखा और उसे पुचकारते हुए बोलीं, "'कहा न बेटा, अभी नहीं, बाद में दिला देंगे”। पर शांभवी इतनी आसानी से कहां मानने वाली थी। उदास होकर बोली, "पापा, होते तो जरूर मुझे स्मार्ट वॉच दिला देते !" बेटी के मुंह से यह बात सुनकर मां और नानी ने कुछ वेर के लिए जैसे खामोशी ओढ़ ली।
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पापा की बात सुनकर भावुक मम्मी कुछ कहतीं, इससे पहले ही नानी ने कहा, ''शाम को बाजार चलेंगे तो दिला देंगे, अभी थोड़ा आराम कर लो, ठीक है?” शाम को शांभरवी ने देखा कि मम्मी और नानी सामान की सूची बना रही हैं, वह उनके पास जाकर बोली, “नानी- नागी ! मेरी स्मार्ट वॉच लिखी या नहीं?"
मम्मी ने शांभवी को दिलासा देते हुए कहा, “मार्केट में देखेंगे, पसंद आई तो ही लेंगे।" शांभवी ने मुस्कुराते हुए कहा, मार्केट में तो इतनी सारी घड़ियां होती हैं पसंद तो आ ही जाएगी।
नानी ने समझाया- बेटा ! पसंद का मतलब ये भी है कि अपने पास उतने पैसे हैं भी या नहीं? क्या नानी आप भी ! इतने पैसे तो सबके पास होते हैं ! नातिन कु समझाया और ये भी बताया कि जो भी आय होती है उसमें से _ बचत भी जरूरी है। शाम को तीनों सुपर मॉल पहुंचे।
घड़ी के शोरूम की तरफ इशारा करते हुए शांभदी बोली - मम्मी, मम्मी स्मार्ट वॉच और वहीं रुक गई। कुछ और सामान खरीदते, इससे पहले ही वे शेरूम की ओर बढ़ चले। “चलो, भई, पहले _ स्मार्ट वॉच ही देख लेते हैं, पर अभी दिलाएंगे नहीं एक- _ दो स्मार्ट वॉच देख शंभवी खुश हो गई।
“मम्मी ये वाली ये वाली !" नानी ने घड़ी का मूल्य पूछा और बाहर निकलने लगीं। शांभवी बोली, "नानी क्या हुआ?" मम्मी ने समझाया- जि नहीं आए, बाद में ले लेंगे।
यदि अभी ये घड़ी ले ली तो का किराना नहीं आ पाएगा!" शांभवी रुआंसी होकर बोली ''आपके पास तो कभी भी ऐसे नहीं रहते, हमेशा कहती रहती हो, काम की चीजें लो, फालतू पैसे खर्च मत करो, अब घड़ी भी नहीं लेने दे रहीं।" नानी बोलीं ''चलो, और भी दुकानें हैं, वहां देखते हैं।
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शायद वहां कम की मिल जाए।" शांभवी बोली- "सब जगह एक-सी ही कीमत रहती है। आठ सौ रुपए ही तो बता रहे हैं !" अब यहां तक आए हैं तो और जगह भी देख लेते हैं" नानी के कहने पर शांभवी अगली दुकान पर स्मार्ट वॉच देखने लगी।
"यहां तो और भी महंगी हैं।" शांभदी ने दुकान में नजरें दौड़ाईं तो असमंजस में पड़ गई कि कौन-सी घड़ी लूं-कौन- सीन लूं। "बताइए कौन-सी दूं" दुकानदार ने पूछा तो शांभवी मम्मी और नानी की ओर देखने लगी। नानी ने पूछा "बताओ बेटा, कौन-सी पसंद है।"
शांभवी दो अलग-अलग घड़ियों में से तय नहीं कर पा रही थी कि कौन-सी ले। बोली, "मुझे तो ये दोनों पसंद हैं, क्या दोनों नहीं ले सकते?" दुकानदार मुस्कुरकर बोला- "नहीं बेटा, ज्यादा लालच ठीक नहीं, घड़ी तो एक. ही हाथ में पहनना है न।
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ये बड़ी बात है कि आपको आपकी मम्मी इतनी छोटी उम्र में घड़ी दिला रही हैं ताकि समय का. महत्व समझ सको, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि "हम. मम्मी की उदारता का गलत फायदा उठाएं।' इतना सुनना था कि नानी ने घड़ी की कीमत पूछी और दो में से कोई एक स्मार्ट वॉच हाथ में बांध लेने को कह दिया।
शांभवी ने भी झटपट पसंदीदा घड़ी कलाई में पहन ली, पर उसकी यह समझ में नहीं आया कि जो मम्मी-नानी पर्याप्त पैसे नहीं होने की बात कहकर घड़ी दिलाने में आना-कानी कर रही थीं, उन्होंने पिछली दुकान से भी अधिक कीमत वाली घड़ी इस दुकान से क्यों दिला दी?
शांभवी इसी सोच विचार मे मगन थी की तभी मम्मी ने पूछा " क्या हुआ घड़ी मिल गई तो चुप! अब संभालकर रखना नहीं तो बिगड़ लो दो चार दिन मे ही।" मम्मी के चुप्पी तोड़ते ही शांभवी के मन-मस्तिष्क में चल रहा प्रश्न जीभ पर आ गया- "मम्मी ! आप तो कह रही थीं।
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कम कीमत की घड़ी लेना है, फिर आपने ये 50 रुपए ज्यादा वाली घड़ी क्यों दिला दी? पहले वाली शॉप पर तो ऐसी ही घड़ी 800 की थी, ये 850 में है, फिर भी खरीद ली, क्या ये और भी अच्छी क्वालिटी की है?”
मम्मी कुछ कहतीं, इससे पहले ही नानी ने प्रशंसा करते हुए कहा,''आपने बहुत अच्छा प्रश्न किया बेटा। दरअसल मूल्य भी दो तरह के होते हैं - एक वह जो रुपए-पैसे के रूप में हमें दिखाई देते हैं और दूसरे वे जो हमारे गुणों, चरित्र और संस्कारों में परिलक्षित होते हैं, हमारे नैतिक मूल्य।
दूसरे वाले शोरूम के भ्रैया ने आपको कितनी अच्छी सलाह दी कि लालच नहीं करना है, जो मिल रहा है उसमें खुश रहना है। देखा-देखी करने में भी विवेक-बुद्धि से काम लेना जरूरी है। अब स्कूल में ही देख लो, कई बच्चों के पास स्मार्ट वॉच नहीं है, परंतु आपको दिखी आपकी वह एकमात्र सहेली जो स्मार्ट वॉच पहने हुए थी।
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वे 20-22 बच्चे नहीं, जिनके पास स्मार्ट वॉच तो छोड़िए, साधारण खिलौने वाली घड़ी शी नहीं। दुकान वाले भैया ने कितनी अच्छी बात कही, 'जो आपके जीवनभर काम आने वाली है।" अब शांभवी की समझ में आ गया था। बोली, “मैं बचत और मूल्य का महत्व समझ गई हूं, अब मैं आपको कभी परेशान नहीं करूँगी।” मम्मी ने बेटी की पीठ सहलाई। यह देख , नानी भी मुस्कुरा दी।
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आज की कहानी इन हिंदी , कहानी लिखी हुई या देसी कहानी और हमारे द्वारा बताई हुई बच्चो की अच्छी अच्छी कहानी । आशा है आपको अच्छी लगी होगी, अगर हां तो इस देसी कहानी पार्ट III और नई कहानी इन हिंदी को शेयर करें और दूसरो को भी Desi Kahani या अच्छी अच्छी कहानी पढ़ने का मौका दें।
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